हयात-ओ-मर्ग का उक़्दा कुशा होने नहीं देता
हयात-ओ-मर्ग का उक़्दा कुशा होने नहीं देता
वो जाने क्यूँ मुझे राज़-आश्ना होने नहीं देता
उसे किस दर्जा अपने हुस्न-ए-यकताई की चाहत है
वो अपना सा कोई भी दूसरा होने नहीं देता
ख़िरद भटकाए है अक्सर दलाएल से अक़ीदत को
मगर गुमराह तेरा नक़्श-ए-पा होने नहीं देता
जो छू लूँ आसमाँ पाँव की धरती खींच लेता है
वो मुझ को क्यूँ मिरे क़द से बड़ा होने नहीं देता
जवाँ-लाशे पे हैं शिकवा-ब-लब काँधे ज़ईफ़ी के
अगर वो चाहता ये हादिसा होने नहीं देता
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