हसीं तुझ से तिरा हुस्न-ए-तलब था
हसीं तुझ से तिरा हुस्न-ए-तलब था
मैं अपने आप को हासिल ही कब था
अदब मलहूज़ ता हद्द-ए-अदब था
मैं बीना भी जो ना-बीना-लक़ब था
मैं अपने आप से बिछड़ा तो जाना
न मिलना भी तिरे मिलने का ढब था
तिरे ग़म की मसर्रत अल्लाह अल्लाह
जो नम-दीदा था वो ख़ंदा-ब-लब था
अज़ल से यूँ तुझे सब जानते हैं
कोई पहचानता अब है न तब था
हर इक लग़्ज़िश पे फैलाए था बाज़ू
तिरा ग़म रहबराना भी ग़ज़ब था
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