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है वही मंज़र-ए-ख़ूँ-रंग जहाँ तक देखूँ - रख़शां हाशमी कविता - Darsaal

है वही मंज़र-ए-ख़ूँ-रंग जहाँ तक देखूँ

है वही मंज़र-ए-ख़ूँ-रंग जहाँ तक देखूँ

मैं फ़क़त एक ही तस्वीर कहाँ तक देखूँ

नींद टूटी है मिरे ख़्वाब कहाँ टूटे हैं

अक्स तेरा ही हक़ीक़त से गुमाँ तक देखूँ

इतनी वुसअ'त दे मिरी क़ल्ब-ओ-नज़र को मौला

आँख सहरा पे धरूँ आब-ए-रवाँ तक देखूँ

रुत कोई आए कभी फूल खिलाने वाली

कब तलक आग हर इक सहन-ओ-मकाँ तक देखूँ

आइना होते हुए अपना उरूज और ज़वाल

मतला-ए-सुब्ह से मग़रिब की अज़ाँ तक देखूँ

बा'द अल्लाह के वो है मिरी शह-ए-रग के क़रीब

कब मिरे दिल की सदा जाती है माँ तक देखूँ

दिल की दहलीज़ से ही लौट गया वो 'रख़्शाँ'

चाहती थी मैं जिसे जिस्म से जाँ तक देखूँ

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In Hindi By Famous Poet Rakhshan Hashmi. is written by Rakhshan Hashmi. Complete Poem in Hindi by Rakhshan Hashmi. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.