दिए जला के हवाओं के मुँह पे मार आया
दिए जला के हवाओं के मुँह पे मार आया
कोई तो है जो अंधेरों का क़र्ज़ उतार आया
ख़ुदा से जब भी कड़ी धूप की शिकायत की
तो मेरी राह में एक पेड़ साया-दार आया
कहाँ हुई कभी उस से हमारी दीद-ओ-शुनीद
हवा के रथ पे हमेशा ही वो सवार आया
सुकून बाँटती फिरती हूँ मैं ज़माने में
न जाने क्यूँ मिरे हिस्से में इंतिशार आया
हज़ार बार मिरा दर्द मुस्कुराएगा
हज़ार बार अगर मौसम-ए-बहार आया
सबब मैं ढूँड रही थी मिरी उदासी का
तिरा ख़याल मुझे आज बार बार आया
किया है उस ने ही ग़ारत मिरा सुकून मगर
उसी के नाम पे 'रख़्शाँ' मुझे क़रार आया
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