हर्फ़-ए-ग़ैर
मेरे अहबाब में इक शाएर-ए-कम-नाम भी है
ज़ेहन है जिस का अजब राहत-गाह
हादसे एक ज़माने के जहाँ आ के सुकूँ पाते हैं
जब चमक उठते हैं कुछ हादसे इज़हार की पेशानी पर
वो सिमटता सा चला जाता है
यानी हर नज़्म उसे और भी बेगाना बना देती है
शब नई नज़्म लिए बैठा था अहबाब के बीच
और सब हमा-तन-गोश उसे सुनते थे
नज़्म के ब'अद वो आलम था कि सन्नाटा न करवट ले पाए
(नोट:ग़ैर-पसन्दीदगी की वज्ह से)
इस ने यूँ देखा नहीं दाद-तलब नज़रों से
जैसे इस आस में हो
गुल के गिरने की सदा फ़र्श से आएगी अभी
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