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क़दम ज़मीं पे न थे राह हम बदलते क्या - राजेन्द्र मनचंदा बानी कविता - Darsaal

क़दम ज़मीं पे न थे राह हम बदलते क्या

क़दम ज़मीं पे न थे राह हम बदलते क्या

हवा बंधी थी यहाँ पीठ पर सँभलते क्या

फिर उस के हाथों हमें अपना क़त्ल भी था क़ुबूल

कि आ चुके थे क़रीब इतने बच निकलते क्या

यही समझ के वहाँ से मैं हो लिया रुख़्सत

वो चलते साथ मगर दूर तक तो चलते क्या

तमाम शहर था इक मोम का अजाइब-घर

चढ़ा जो दिन तो ये मंज़र न फिर पिघलते क्या

वो आसमाँ थे कि आँखें समेटतीं कैसे

वो ख़्वाब थे कि मिरी ज़िंदगी में ढलते क्या

निबाहने की उसे भी थी आरज़ू तो बहुत

हवा ही तेज़ थी इतनी चराग़ जलते क्या

उठे और उठ के उसे जा सुनाया दुख अपना

कि सारी रात पड़े करवटें बदलते क्या

न आबरू-ए-तअल्लुक़ ही जब रही 'बानी'

बग़ैर बात किए हम वहाँ से टलते क्या

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In Hindi By Famous Poet Rajinder Manchanda, Bani. is written by Rajinder Manchanda, Bani. Complete Poem in Hindi by Rajinder Manchanda, Bani. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.