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मिरे बदन में पिघलता हुआ सा कुछ तो है - राजेन्द्र मनचंदा बानी कविता - Darsaal

मिरे बदन में पिघलता हुआ सा कुछ तो है

मिरे बदन में पिघलता हुआ सा कुछ तो है

इक और ज़ात में ढलता हुआ सा कुछ तो है

मिरी सदा न सही हाँ मिरा लहू न सही

ये मौज मौज उछलता हुआ सा कुछ तो है

कहीं न आख़िरी झोंका हो मिटते रिश्तों का

ये दरमियाँ से निकलता हुआ सा कुछ तो है

नहीं है आँख के सहरा में एक बूँद सराब

मगर ये रंग बदलता हुआ सा कुछ तो है

जो मेरे वास्ते कल ज़हर बन के निकलेगा

तिरे लबों पे सँभलता हुआ सा कुछ तो है

ये अक्स पैकर-ए-सद-लम्स है नहीं न सही

किसी ख़याल में ढलता हुआ सा कुछ तो है

बदन को तोड़ के बाहर निकलना चाहता है

ये कुछ तो है ये मचलता हुआ सा कुछ तो है

किसी के वास्ते होगा पयाम या कोई क़हर

हमारे सर से ये टलता हुआ सा कुछ तो है

ये मैं नहीं न सही अपने सर्द बिस्तर पर

ये करवटें सी बदलता हुआ सा कुछ तो है

वो कुछ तो था मैं सहारा जिसे समझता था

ये मेरे साथ फिसलता हुआ सा कुछ तो है

बिखर रहा है फ़ज़ा में ये दूद रौशनी का

उधर पहाड़ के जलता हुआ सा कुछ तो है

मिरे वजूद से जो कट रहा है गाम-ब-गाम

ये अपनी राह बदलता हुआ सा कुछ तो है

जो चाटता चला जाता है मुझ को ऐ 'बानी'

ये आस्तीन में पलता हुआ सा कुछ तो है

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In Hindi By Famous Poet Rajinder Manchanda, Bani. is written by Rajinder Manchanda, Bani. Complete Poem in Hindi by Rajinder Manchanda, Bani. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.