कम-निगही
शहर के बाहर, वीराने में
इक पगडंडी पर तन्हा सा
नन्हा सा इक पेड़ खड़ा था
शाख़ें उस की छोटी छोटी
पत्ते कम कम
फल भी थोड़े इक्का-दुक्का
जैसे किसी ने तोड़ लिए हों
लेकिन साया घना घना था
मैं ने देखा
एक मुसाफ़िर उस की छाँव में सुस्ताता था
थोड़ी देर में वो उठ बैठा
सामाँ उस ने सफ़र का बाँधा
और सफ़र की आसाइश को
पेड़ से दो इक फल भी तोड़े
हरे हरे कुछ पत्ते नोचे
गठरी में चुपके से रक्खे
शहर के रस्ते पर चला निकला
थोड़ी दूर से लौट के देखा
पगडंडी पर पेड़ खड़ा था
नन्हा सा, वो तन्हा तन्हा!
रह-रौ ठिटका सोच में डूबा
अपने-आप से वो यूँ बोला
इस वीराँ सी पगडंडी पर
तन्हा तन्हा बे-मसरफ़ सा
पेड़ खड़ा! है क्या करता है!
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