मैं संगलाख़ ज़मीनों के राज़ कहता हूँ
मैं संगलाख़ ज़मीनों के राज़ कहता हूँ
मैं गीत बन के चटानों के बीच गूँजा हूँ
तुलू-ए-सुब्ह का मंज़र अजीब है कितना
मिरा ख़याल है मैं पहली बार जागा हूँ
मिरा वजूद ग़नीमत है सोचिए तो सही
मैं ख़ुश्क डाल का पत्ता हरा हरा सा हूँ
बजा कि रोज़ अंधेरा मुझे निगलता है
मैं रोज़ इक नया ख़ुर्शीद बन के उठता हूँ
किसी ने बात ही समझी न हाल ही पूछा
अजीब कर्ब के आलम में घर से निकला हूँ
मैं जानता हूँ कि है इर्तिक़ा की क्या सूरत
मैं आह बन के उठा अब्र बन के बरसा हूँ
अजीब बात है हर सम्त रास्ते हैं रवाँ
अजीब बात है मैं घर की राह भूला हूँ
मुझे तलाश करेंगे नई रुतों में लोग
मैं गहरी धुँद में लिपटा हुआ जज़ीरा हूँ
इस इक सवाल ने रक्खा है मुद्दतों हैराँ
मैं किस का रूप हूँ मैं 'राज़' किस की छाया हूँ
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