बूँदें पड़ी थीं छत पे कि सब लोग उठ गए
बूँदें पड़ी थीं छत पे कि सब लोग उठ गए
क़ुदरत के आदमी से अजब सिलसिले रहे
वो शख़्स क्या हुआ जो मुक़ाबिल था! सोचिए!
बस इतना कह के आइने ख़ामोश हो गए
इस आस पर कि ख़ुद से मुलाक़ात हो कभी
अपने ही दर पे आप ही दस्तक दिया किए
पत्ते उड़ा के ले गई अंधी हवा कहीं
अश्जार बे-लिबास ज़मीं में गड़े रहे
क्या बात थी कि सारी फ़ज़ा बोलने लगी!
कुछ बात थी कि देर तलक सोचते रहे
हर सनसनाती शय पे थी चादर धुएँ की 'राज़'
आकाश में शफ़क़ थी न पानी पे दाएरे
मैं ने ग़ज़ल कही है 'मुनव्वर' मगर कहाँ!
पूछेगा 'राज़' कौन! मियाँ शेर कुछ कहे?
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