बाहम सुलूक-ए-ख़ास का इक सिलसिला भी है
बाहम सुलूक-ए-ख़ास का इक सिलसिला भी है
वो कौन साथ साथ है लेकिन जुदा भी है
बर्ग-ए-ख़िज़ाँ की ज़र्द सी तहरीर है मगर
दस्त-ए-शफ़क़ में फूल सुनहरा खिला भी है
ईथर की धुँद में हैं गए मौसमों के नक़्श
इक हाथ पीठ पर है दिया इक जला भी है
अफ़्कार जैसे शख़्स बरहना नगर के हैं!
अल्फ़ाज़ अजनबी कि नया नारवा भी है
पानी में इक चराग़ की लौ नम गुदाज़ सुर्ख़
पानी में कोई अक्स अजब ज़र्द सा भी है
इक नश्शा! धूप! ख़्वाब! शफ़क़! चाँदनी! सराब
खिड़की गुमाँ की! सामने मंज़र नया भी है
आओ बनाएँ कश्तियाँ काग़ज़ की चल के राज़
पुर्वा चली है झूम के बादल उठा भी है
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