नख़्ल-ए-उमीद-ओ-आरज़ू बे-बर्ग-ओ-बार है
नख़्ल-ए-उमीद-ओ-आरज़ू बे-बर्ग-ओ-बार है
नाकामी-ए-हयात पे दिल शर्मसार है
दामान-ए-सब्र हिज्र में गो तार-तार है
वा'दे का उन के फिर भी हमें ए'तिबार है
फ़िक्र-ए-जहाँ मुझे न ग़म-ए-रोज़गार है
फिर भी न जाने किस लिए दिल बे-क़रार है
शाम-ए-फ़िराक़ शिद्दत-ए-ग़म बे-शुमार है
मुश्ताक़-ए-दीद आँख भी अब अश्क-बार है
गुलशन में उन को देख के महव-ए-ख़िराम-ए-नाज़
समझी निगाह-ए-शौक़ कि रक़्स-ए-बहार है
यूँ तो हज़ार बार उसे आज़मा चुके
फिर ए'तिबार-ए-वादा-ए-ग़फ़लत-शिआर है
मुद्दत हुई है क़त-ए-तअल्लुक़ किए 'नदीम'
उस जान-ए-इंतिज़ार का फिर इंतिज़ार है
(636) Peoples Rate This