'नदीम' उन की ज़बाँ पर फिर हमारा नाम है शायद
'नदीम' उन की ज़बाँ पर फिर हमारा नाम है शायद
हमारी फ़िक्र में फिर गर्दिश-ए-अय्याम है शायद
सर-ए-कू-ए-बुताँ जो एक अम्बोह-ए-हरीफ़ाँ है
फ़राज़-ए-बाम पर अब भी वो जल्वा आम है शायद
मिरे अहबाब भी ख़ुश हैं मिरी बर्बादी-ए-दिल पर
सुलूक-ए-दोस्ताँ लोगो इसी का नाम है शायद
सर-ए-महफ़िल निगाहों का तसादुम देखने वालो
किसी को फिर किसी से आ पड़ा कुछ काम है शायद
अजब अंदाज़ से आई है कुछ अठखेलियाँ करती
शमीम-ए-जाँ-फ़िज़ा के पास कुछ पैग़ाम है शायद
ख़याल आता है अक्सर देख कर रुख़्सार-ओ-गेसू को
न ऐसी सुब्ह है शायद न ऐसी शाम है शायद
नज़र भी अब नहीं उठती हमारी सम्त महफ़िल में
'नदीम' ईसार-ओ-उल्फ़त का यही अंजाम है शायद
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