जब फ़राज़-ए-बाम पर वो जल्वा-गर होता नहीं
जब फ़राज़-ए-बाम पर वो जल्वा-गर होता नहीं
कोई आलम हो नज़र में मो'तबर होता नहीं
रफ़्ता रफ़्ता हो रहा है वो सितमगर मेहरबाँ
कौन कहता है मोहब्बत में असर होता नहीं
बे-वफ़ाई ने किया है क़िस्सा-ए-ग़म को तवील
अब किसी सूरत ये क़िस्सा मुख़्तसर होता नहीं
कब निगाहों में नहीं होता तिरी फ़ुर्क़त का ग़म
कौन सा आलम है जब दर्द-ए-जिगर होता नहीं
शिद्दत-ए-ग़म में कमी होती नहीं रोने से कुछ
लश्कर-ए-ग़म आँसुओं से मुंतशिर होता नहीं
अब भी नज़रें हैं फ़राज़ तूर पर पैहम मगर
हाए वो जल्वा कि जो बार-ए-दिगर होता नहीं
राहबर की साज़िशों ने वो दिए हैं ग़म 'नदीम'
अब किसी सूरत यक़ीन-ए-राहबर होता नहीं
(502) Peoples Rate This