शिकवा करने से कोई शख़्स ख़फ़ा होता है
शिकवा करने से कोई शख़्स ख़फ़ा होता है
और शिकवा नहीं करता तो गिला होता है
हश्र जिस से दिल-ए-मुतरिब में बपा होता है
सिर्फ़ इक नग़्मा-ए-बे-सौत-ओ-सदा होता है
नींद आती नहीं जिस रात तुझे ऐ दिल-ए-ज़ार
शायद उस रात कोई जाग रहा होता है
यूँ है वहशत-कदा-ए-दिल में तिरी याद ऐ दोस्त
जैसे सहरा में कोई फूल खिला होता है
रूह-ए-शाइ'र से उभरता है सुरूद-ए-अबदी
ऐन उस वक़्त कि दिल डूब रहा होता है
देख तो कौन ख़ुद-आरा है पस-ए-पर्दा-ए-रंग
तुक्मा-ए-गुल तो फ़क़त बंद-ए-क़बा होता है
और बढ़ जाती है कुछ लफ़्ज़-ओ-बयाँ की तासीर
लफ़्ज़ जब अश्क की सूरत में अदा होता है
गामज़न रूह हुई वादी-ए-ख़ामोशाँ में
ख़त्म आख़िर सफ़र-ए-कोह-ए-निदा होता है
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