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कू-ए-जानाँ मुझ से हरगिज़ इतनी बेगाना न हो - रईस अमरोहवी कविता - Darsaal

कू-ए-जानाँ मुझ से हरगिज़ इतनी बेगाना न हो

कू-ए-जानाँ मुझ से हरगिज़ इतनी बेगाना न हो

ऐन मुमकिन है कि फिर तेरी तरफ़ आना न हो

ऐन मुमकिन है कि दोहराऊँ हदीस-ए-दीगराँ

आज जो मेरी ज़बाँ पर है वो अफ़्साना न हो

ऐन मुमकिन है कि जा पहुँचूँ किसी मिर्रीख़ पर

इस ज़मीं से कोई रिश्ता कोई याराना न हो

पीर-ए-मय-ख़ाना ये मुमकिन है कि मेरा जा-नशीं

रिंद हो पर वाक़िफ़-ए-आदाब-ए-मय-खाना न हो

तू मुझे फ़र्ज़ानगी का फ़न न सिखला ऐ ख़िरद

ऐन मुमकिन है कि मुझ सा कोई दीवाना न हो

ऐन मुमकिन है कि मैं तुझ से बिछड़ जाने के बा'द

ऐसा बन जाऊँ कि ख़ुद तेरी जिसे पर्वा न हो

ऐन मुमकिन है कि तेरी बे-रुख़ी को देख कर

मैं वो काफ़िर हूँ जो मसहूर-ए-रुख़-ए-ज़ेबा न हो

सोच मत ऐ दोस्त तेरे बा'द क्या होगा ये सोच

या'नी मेरे बा'द फिर मुझ सा कोई पैदा न हो

फिर न उठ्ठे कोई आरिफ़ मेरी वज़्अ-ए-ख़ास का

और मुझ सा शाइर-ए-सरशार-ओ-होश-अफ़्ज़ा न हो

या'नी मेरे बा'द कोई मर्द-ए-हिकमत-आफ़रीं

मंज़र-ए-हिकमत पे आए और फ़रज़ाना न हो

मुझ को तर्क-ए-दोस्ती के इस क़दर ता'ने न दे

मैं तिरा दुश्मन नज़र आने लगूँ ऐसा न हो

फिर कहे देता कहे देता कहे देता हूँ मैं

कू-ए-जानाँ मुझ से हरगिज़ इतनी बेगाना न हो

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In Hindi By Famous Poet Rais Amrohvi. is written by Rais Amrohvi. Complete Poem in Hindi by Rais Amrohvi. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.