दिल से या गुल्सिताँ से आती है
दिल से या गुल्सिताँ से आती है
तेरी ख़ुश्बू कहाँ से आती है
कितनी मग़रूर है नसीम-ए-सहर
शायद उस आस्ताँ से आती है
ख़ुद वही मीर-ए-कारवाँ तो नहीं
बू-ए-ख़ुश कारवाँ से आती है
उन के क़ासिद का मुंतज़िर हूँ मैं
ऐ अजल! तू कहाँ से आती है
शिकवा कैसा कि हर बला ऐ दोस्त!
जानता हूँ जहाँ से आती है
हो चुकीं आज़माइशें इतनी
शर्म अब इम्तिहाँ से आती है
ऐन दीवानगी में याद आया!
अक़्ल इश्क़-ए-बुताँ से आती है
तेरी आवाज़ गाह गाह ऐ दोस्त!
पर्दा-ए-साज़-ए-जाँ से आती है
दिल से मत सरसरी गुज़र कि 'रईस'
ये ज़मीं आसमाँ से आती है
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