हादसों ही में ज़िंदगी जी है
हादसों ही में ज़िंदगी जी है
हम ने क़िस्तों में ख़ुद-कुशी की है
झुक के जीना हमें नहीं आता
और आवाज़ भी कुछ ऊँची है
आप से कुछ गिला नहीं साहब
अपनी तक़दीर ही कुछ ऐसी है
शे'र पढ़ना यहाँ सँभल के मियाँ
और बस्ती नहीं ये दिल्ली है
चेहरा उस का किताब जैसा है
और रंगत गुलाब की सी है
हम ने 'रहमत' ग़ज़ल के लहजे में
'मीर'-साहिब से गुफ़्तुगू की है
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