लहू आँखों में रौशन है ये मंज़र देखना अब के
लहू आँखों में रौशन है ये मंज़र देखना अब के
दयार-ए-ग़म में क्या गुज़री है हम पर देखना अब के
अँधेरा है वही लेकिन रिवायत वो नहीं बाक़ी
चराग़ों की जगह हाथों में ख़ंजर देखना अब के
सुलगते घर की चिंगारी भी बदला लेने वाली है
ये मंज़र देखना लेकिन सँभल कर देखना अब के
शिकस्त-ओ-फ़त्ह की तारीख़ लिक्खी जाएगी यूँ भी
तही-दस्ती से होगा मा'रका सर देखना अब के
शनासाई के साए बढ़ गए सहन-ए-रिफ़ाक़त में
हमारी पुश्त में पैवस्त ख़ंजर देखना अब के
ज़मीं को फिर लहू बख़्शा गया है बे-गुनाहों का
सितम के हर शजर को फिर समर-वर देखना अब के
सुकूत-ए-शब में आँखें बंद होंगी जब दरीचों की
कोई साया नज़र आएगा दर दर देखना अब के
छलकने वाली है ये चश्म-ए-वीराँ एक दिन 'राही'
सुलगते दश्त में कोई समुंदर देखना अब के
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