ये कैसा गुल खिलाया है शजर ने
समर बनने को ग़ुंचा मुंतज़िर है
Parveen Shakir
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Mir Taqi Mir
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Gulzar
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मुतालेआ की हवस है किताब दे जाओ
किसी को साया किसी को गुल-ओ-समर देगा
हादसों के ख़ौफ़ से एहसास की हद में न था
बराए-नाम ही सही ब-एहतियात कीजिए
कोई नश्शा न कोई ख़्वाब ख़रीद
आप ने अच्छा किया ततहीर-ए-ख़्वाहिश ही न की
हर इक फ़न में यक़ीनन ताक़ है वो
मता-ओ-माल-ए-हवस हुब्ब-ए-आल सामने है
ख़ुद को मुम्ताज़ बनाने की दिली-ख़्वाहिश में
हवस-गिरफ़्ता हवाओ निगाहें नीची रखो
यास-ओ-हिरास-ओ-जौर-ओ-जफ़ा से अलग-थलग