किसी को साया किसी को गुल-ओ-समर देगा
हरा-भरा है दरख़्त-ए-रिवाज रहने दो
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हम न होते काख़-ए-मुश्त-ए-ख़ाक होता ग़ालिबन
ख़ुद को मुम्ताज़ बनाने की दिली-ख़्वाहिश में
हवस-गिरफ़्ता हवाओ निगाहें नीची रखो
हर एक शाख़ थी लर्ज़ां फ़ज़ा में चीख़-ओ-पुकार
एहसास-ए-ज़िम्मेदारी बेदार हो रहा है
सुनो तो आरिज़ा-ए-इख़तिलाज रहने दो
शराफ़तों के रंग में शरारतें ख़लत-मलत
लज़्ज़त का ज़हर वक़्त-ए-सहर छोड़ कर कोई
हर इक फ़न में यक़ीनन ताक़ है वो
मता-ओ-माल-ए-हवस हुब्ब-ए-आल सामने है
यास-ओ-हिरास-ओ-जौर-ओ-जफ़ा से अलग-थलग
कोई नश्शा न कोई ख़्वाब ख़रीद