हादसों के ख़ौफ़ से एहसास की हद में न था
वर्ना नफ़्स-ए-मुतमइन सफ़्फ़ाक होता ग़ालिबन
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सब्ज़ा-ज़ारों की शराफ़त से न खेलो क़तअन
एहसास-ए-ज़िम्मेदारी बेदार हो रहा है
हर इक फ़न में यक़ीनन ताक़ है वो
हर एक शाख़ थी लर्ज़ां फ़ज़ा में चीख़-ओ-पुकार
यास-ओ-हिरास-ओ-जौर-ओ-जफ़ा से अलग-थलग
कोई नश्शा न कोई ख़्वाब ख़रीद
ख़ुद को मुम्ताज़ बनाने की दिली-ख़्वाहिश में
सुनो तो आरिज़ा-ए-इख़तिलाज रहने दो
बराए-नाम ही सही ब-एहतियात कीजिए
शराफ़तों के रंग में शरारतें ख़लत-मलत
मुतालेआ की हवस है किताब दे जाओ