रक़्स करते मस्तियों के सैंकड़ों आलम गए
रक़्स करते मस्तियों के सैंकड़ों आलम गए
महफ़िल-ए-जम बन गई जिस अंजुमन में हम गए
हर अलम से हर बला से मिल गई दिल को नजात
जब से तेरा ग़म मिला है अपने सारे ग़म गए
आ गई क्या जानिए फिर किस मसीहा-दम की याद
दर्द-ए-पैहम रुक गया अश्क-ए-मुसलसल थम गए
छा गईं रिंदान-ए-महफ़िल पर बला की मस्तियाँ
बज़्म में जिस सम्त छलकाते वो जाम-ए-जम गए
कौन कहता है फ़ज़ा-ए-दहर अब बरहम नहीं
कौन कहता है तिरी ज़ुल्फ़ों के पेच-ओ-ख़म गए
था वो तकिया हम फ़क़ीरों का ही ऐ हमदम जहाँ
जुब्बा-साई को हज़ारों अकबर-ए-आज़म गए
रह गए अग़्यार सब हैरान-ओ-शश्दर ऐ 'उमीद'
इस अदा से आज उन की अंजुमन में हम गए
(398) Peoples Rate This