ग़ाफ़िल तिरी नज़र ही से पर्दा उठा न था
ग़ाफ़िल तिरी नज़र ही से पर्दा उठा न था
वर्ना वो किस मक़ाम पे जल्वा-नुमा न था
रौशन चराग़-ए-इश्क़ ने की मंज़िल-ए-हयात
वर्ना वो तीरगी थी कि कुछ सूझता न था
मक़्सूद एक तेरे ही दर की थी जुस्तुजू
दैर-ओ-हरम से मुझ को कोई वास्ता न था
आवाज़ दे रहे थे जिसे बे-ख़ुदी में हम
देखा तो वो हमें थे कोई दूसरा न था
वो तो शिकायत अपनी वफ़ाओं की थी हुज़ूर
कुछ आप की जफ़ाओं का शिकवा-गिला न था
माना कि दूर था तो निगाहों से ऐ करीम
लेकिन तिरा ख़याल तो दिल से जुदा न था
हम आप अपनी मंज़िल-ए-मक़्सूद थे 'उमीद'
जाते कहाँ कि ख़ुद से परे रास्ता न था
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