बात तो जब है कि जज़्बों से सदाक़त फूटे
यूँ तो दावा है हर इक शख़्स को सच्चाई का
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तुम समुंदर के सहमे हुए जोश को मेरा पैग़ाम देना
सन्नाटा छा गया है शब-ए-ग़म की चाप पर
मोहब्बतों की मसाफ़त से कट के देखते क्या
ज़िंदा हैं मिरे ख़्वाब ये कब याद है मुझ को
मिस्ल-ए-बहिश्त-ए-ख़ुश-नुमा कौन-ओ-मकान में
जब तिरी चाह में दामान-ए-जुनूँ चाक हुआ
ये बात मुन्कशिफ़ हुई चराग़ के बग़ैर भी
तहलील मौसमों में कर के अजब नशा सा
कितना जाँ-सोज़ है मंज़र मिरी तन्हाई का
तफ़्सील-ए-इनायात तो अब याद नहीं है
नर्म लहजे में तहम्मुल से ज़रा बात करो