विसालिया
धरती सुलग रही थी आकाश जल रहा था
बे-रंग थीं फ़ज़ाएँ मौसम बदल रहा था
ख़ुशबू मिरे बदन को गुलज़ार कर रही थी
वो कैफ़-ए-बे-ख़ुदी में कलियाँ मसल रहा था
करवट बदल रहे थे अरमान मेरे दिल के
जब चाँदनी का मंज़र दरिया में ढल रहा था
जल्वों का रक़्स मैं ने मस्ताना-वार देखा
बिन्त-ए-इनब का जाने दिल क्यूँ मचल रहा था
ऐसा भी एक आलम गुज़रा 'ख़याल' मुझ पर
मैं उस की जुस्तुजू में काँटों पे चल रहा था
(351) Peoples Rate This