उसी आग में
उसी आग में
मुझे झोंक दो
वही आग जिस ने बुलाया था
मुझे एक दिन दम-ए-शोलगी
दम-ए-शोलगी मिरा इंतिज़ार किया बहुत
कई ख़ुश्क लकड़ियों शाख़चों, के हिसार में
जहाँ बर्ग-ओ-बार का ढेर था
दम-ए-शोलगी
मुझे एक पत्ते ने ये कहा था घमंड से
इधर आ के देख
कि इस तपीदा ख़ुमार में
हमीं हम हैं
लकड़ियों शाख़चों के हिसार में
यहाँ और कौन वजूद है
यहाँ सिर्फ़ हम हैं रुके हुए
कहीं आधे और
कहीं पूरे पूरे जले हुए
दम-ए-शोलगी
हमें जो मसर्रत-ए-रक़्स थी
तुम्हें क्या ख़बर
अगर आग तुम को अज़ीज़ थी
तो ये जिस्म कौन सी चीज़ थी
जिसे तुम कभी न जला सके
वो जो राज़ था पस-ए-शोलगी नहीं पा सके!
सो कहा था मैं ने ये एक अध-जले बर्ग से
मुझे दुख बहुत है कि आग ने
मिरा इंतिज़ार किया बहुत
मगर उन दिनों
किसी और तर्ज़ की आग में
मिरा जिस्म जलने की आरज़ू में असीर था
मगर उन दिनों मैं न जल सका
मैं न जून अपनी बदल सका
मगर अब वो आग
कि जिस में तुम ने पनाह ली
जहाँ तुम जले
जहाँ तुम अजीब सी लज़्ज़तों से गले मिले
उसी आग में मुझे झोंक दो
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