अजीब मा-फ़ौक़ सिलसिला था
अजीब मा-फ़ौक़ सिलसिला था
शजर जड़ों के बग़ैर ही
उग रहे थे
ख़ेमे बग़ैर चोबों के
और तनाबों के आसरे के
ज़मीं पे इस्तादा हो रहे थे
चराग़ लौ के बग़ैर ही
जल रहे थे
कूज़े बग़ैर मिट्टी के
चाक पर ढल रहे थे
दरिया बग़ैर पानी के
बह रहे थे
सभी दुआएँ गिरफ़्ता-पा थीं
रुकी हुई चीज़ें क़ाफ़िला थीं
पहाड़ बारिश के एक क़तरे से
घुल रहे थे
बग़ैर चाबी के क़ुफ़्ल
अज़-ख़ुद ही खुल रहे थे
निडर पियादा थे
और बुज़दिल
असील घोड़ों पे बैठ कर
जंग लड़ रहे थे
गुनाहगारों ने सर से पा तक
बदन को बुर्राक़ चादरों से
ढका हुआ था
वली की नंगी कमर छुपाने को
कोई कपड़ा नहीं बचा था
अजीब मा-फ़ौक़ सिलसिला था
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