अजब पानी है
अजब पानी है
अजब मल्लाह है
सूराख़ से बे-फ़िक्र
आसन मार के
कश्ती के इक कोने में बैठा है
अजब पानी है
जो सूराख़ से दाख़िल नहीं होता
कोई मौज-ए-नहुफ़्ता है
जो पेंदे से
किसी लकड़ी के तख़्ते की तरह चिपकी है
कश्ती चल रही है
सर-फिरी लहरों के झूले में
अभी ओझल है
जैसे डूबती अब डूबती है
जैसे बत्न-ए-आब से
जैसे तलातुम की सियाही से
अभी निकली है
जैसे रात-दिन
बस एक ही आलम में
कश्ती चल रही है
क्या अजब कश्ती है
जिस के दम से ये पानी रवाँ है
और उस मल्लाह का दिल नग़्मा-ख़्वाँ है
कितने टापू राह में आए
मगर मल्लाह
ख़ुश्की की तरफ़ खिंचता नहीं
नज़ारा-ए-रक़्सन्दगी ख़्वाब में
शामिल नहीं होता
अजब पानी है
जो सूराख़ से दाख़िल नहीं होता
(385) Peoples Rate This