फिर तेज़ हवा चलते ही बे-कल हुईं शाख़ें
फिर तेज़ हवा चलते ही बे-कल हुईं शाख़ें
किस दर्द के एहसास से बोझल हुईं शाख़ें
क्या सोच के रक़्साँ हैं सर-ए-शाम खुले सर
किस काहिश-ए-बे-नाम से पागल हुईं शाख़ें
गिरते हुए पत्तों की तड़पती हुई लाशें
सद-तनतना-ए-ज़ीस्त का मक़्तल हुईं शाख़ें
तरसी हुई बाहें हैं हुमकते हुए आग़ोश
दीवानगी-ए-शौक़ का सिंबल हुईं शाख़ें
फिर रात के अश्कों से फ़ज़ा भीग चली है
फिर ओस की बरसात से शीतल हुईं शाख़ें
झोंके हैं कि शहनाई के सुर जाग रहे हैं
इक नग़्मा-गर-ए-नाज़ की पायल हुईं शाख़ें
बरगद का तना एक सदी उम्र-ए-रवाँ की
साए हैं मह-ओ-साल तो पल पल हुईं शाख़ें
हर डाल पे इक टूटती अंगड़ाई का आलम
शब-भर जो हवा तेज़ रही शल हुईं शाख़ें
जाता हुआ महताब जो दम-भर को रुका है
इक महवश-ए-तन्नाज़ का आँचल हुईं शाख़ें
जब डूब गया ग़म के उफ़ुक़ में दिल-ए-तन्हा
महताब से दूर आँख से ओझल हुईं शाख़ें
(427) Peoples Rate This