रोज़ उठता है धुआँ कोह-ए-निदा के उस पार
रोज़ उठता है धुआँ कोह-ए-निदा के उस पार
चाँद चुप-चाप सुलगता है फ़ज़ा के उस पार
भीग जाती है ये मासूम सी धरती हर सुब्ह
कौन रोता है बताओ तो घटा के उस पार
सरहद-ए-जिस्म से आगे हद-ए-इम्काँ से परे
शहर-ए-जाँ रहता है दीवार-ए-अना के उस पार
नेकियाँ बाँटते रहने की सज़ा लाज़िम है
पारा पारा है बदन कू-ए-जज़ा के उस पार
मैं कि मंजधार में हूँ कौन निकाले 'शबनम'
छुप गया वो तो कहीं मुझ को बुला के उस पार
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