तमाम शहर में है आम कारोबार-ए-हवस
तमाम शहर में है आम कारोबार-ए-हवस
कि चेहरे चेहरे पे चस्पाँ है इश्तिहार-ए-हवस
अभी रगों में है तल्ख़ी-ए-ए'तिबार-ए-हवस
बदन में टूट रहा है अभी ख़ुमार-ए-हवस
जो चल पड़े हो तो अंजाम-ए-गुमरही से डरो
सुपुर्द-ए-ख़ाक न कर दे ये रहगुज़ार-ए-हवस
हवा है गर्म न कमरे की खिड़कियाँ खोलो
न जाने शहर में ठहरे कहाँ ग़ुबार-ए-हवस
फ़रार ख़्वाहिश-ए-हस्ती से जब नहीं मुमकिन
नफ़स की क़ैद कहें या इसे हिसार-ए-हवस
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