बंद है आज भी तर्सील पे राह-ए-अल्फ़ाज़
बंद है आज भी तर्सील पे राह-ए-अल्फ़ाज़
मैं कि मज़मून हूँ फिर भी हूँ तबाह-ए-अल्फ़ाज़
आज औराक़-नवर्दी है मुक़द्दर लेकिन
कल मोअर्रिख़ मुझे ठहराएगा शाह-ए-अलफ़ाज़
काश मफ़हूम-गज़ीदा कोई पत्थर ही मिले
संग-ज़ारों में भटकती है निगाह-ए-अल्फ़ाज़
लोग समझेंगे न जानेंगे मिरी बात मगर
मेरे सर आएगा फिर भी ये गुनाह-ए-अल्फ़ाज़
हूँ वो मफ़्हूम जो शर्मिंदा-ए-तहरीर नहीं
है पनाहों में मिरी ख़ुद ही पनाह-ए-अल्फ़ाज़
बर-सर-ए-जंग हूँ तर्सील के मैदाँ में 'रईस'
क़ैद-ए-इबहाम में है फिर भी सबाह-ए-अल्फ़ाज़
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