मंज़िल-ए-यार बे-निशाँ भी नहीं
मंज़िल-ए-यार बे-निशाँ भी नहीं
दिल हो ग़ाफ़िल तो राज़-दाँ भी नहीं
बर्क़ क्यूँ बे-क़रार है इतना
अब तो गुलशन में आशियाँ भी नहीं
हो नज़र में अगर हक़ीक़त-ए-हुस्न
ज़िंदगी सादा दास्ताँ भी नहीं
वो जफ़ाओं पे शर्मसार न हों
अब ये मंज़िल मुझे गराँ भी नहीं
यार की जुस्तुजू को क्या कहिए
राएगाँ भी है राएगाँ भी नहीं
दिल तक आए तो वजह-ए-तस्कीं हो
वो नज़र इतनी मेहरबाँ भी नहीं
अल्लाह अल्लाह सुरूर-ए-याद-ए-हबीब
अब मुझे हिज्र का गुमाँ भी नहीं
लब तक आ जाए तो क़यामत है
आशिक़ी कार-ए-बे-फ़ुग़ाँ भी नहीं
अज़्मत-ए-हुस्न इश्क़ से है 'रईस'
सर नहीं है तो आस्ताँ भी नहीं
(385) Peoples Rate This