हाथ से आख़िर छूट पड़ा पत्थर जो उठाया था
हाथ से आख़िर छूट पड़ा पत्थर जो उठाया था
क्या करता मुजरिम भी तो ख़ुद अपना साया था
ऐसा होता काश कहीं कुछ रंग भी मिल जाते
उस ने मेरे ख़्वाबों का ख़ाका तो बनाया था
अब तू भी बाहर आ जा यूँ जिस्म में छुपना क्या
पर्दा ही करना था तो क्यूँ मुझ को बुलाया था
आज के मौसम से बे-सुध कुछ लोग कफ़न चेहरा
अब तक सहमे बैठे हैं तूफ़ान कल आया था
जी चाहे तो और भी रुक ले पलकों की छाँव में
मैं ने तो तुझ को वक़्त का बस एहसास दिलाया था
रोज़ सवेरे वीराना बचता है 'फ़राज़' आख़िर
हम ने रात भी ख़्वाबों में इक शहर सजाया था
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