जूँ भी जो रेंगने नहीं देती थी कान पर
जूँ भी जो रेंगने नहीं देती थी कान पर
कालक लगा के छोड़ गई ख़ानदान पर
माइल हैं ज़ेहन-ओ-फ़िक्र जो ऊँची उड़ान पर
यूँ पाँव हैं ज़मीं पे नज़र आसमान पर
आराम से हैं ऊँची इमारात के मकीं
पत्थर बरस रहे हैं शिकस्ता-मकान पर
अर्ज़ां-फ़रोश पर नहीं उठती नज़र कोई
रहती है भीड़ शहर की महँगी दुकान पर
जैसे बदन में जान ही बाक़ी नहीं रही
महसूस हो रहा है सफ़र की तकान पर
बिफरे समुंदरों पे बरसता चला गया
आया न अब्र धूप में तपते मकान पर
दिल रेज़ा रेज़ा है तो जिगर है लहू लहू
कैसी बनी हुई है मोहब्बत की जान पर
हाँ रहरवो मिलेगी तुम्हें मंज़िल-ए-हयात
चलते रहो हमारे क़दम के निशान पर
ख़ुद्दारी-ए-जमाल गवारा न कर सकी
उस ने मसल के फेंक दिया फूल लॉन पर
'बाग़ी' भटक रहा हूँ मैं सहरा-ए-शौक़ में
क्या नक़्श उस ने लिख के खिलाया था पान पर
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