साज़-ए-फ़ुर्क़त पे ग़ज़ल गाओ कि कुछ रात कटे
साज़-ए-फ़ुर्क़त पे ग़ज़ल गाओ कि कुछ रात कटे
प्यार की रस्म को चमकाओ कि कुछ रात कटे
जब ये तय है कि ग़म-ए-इश्क़ बहुत काफ़ी है
ग़म का मफ़्हूम ही समझाओ कि कुछ रात कटे
सुब्ह के साथ ही हम ख़ुद भी बिखर जाएँगे
दो-घड़ी और ठहर जाओ कि कुछ रात कटे
दामन-ए-दर्द पे बिखरे हुए आँसू की तरह
मेरी पलकों पे भी लहराओ कि कुछ रात कटे
ज़िक्र-ए-गुलज़ार सही क़िस्सा-ए-दिल-दार सही
ज़ख़्म के फूल ही महकाओ कि कुछ रात कटे
एक एक दर्द के सीने में उतर कर देखो
एक एक साँस में लहराओ कि कुछ रात कटे
दिल की वादी में है तारीक घटाओं का हुजूम
चाँदनी बन के निखर जाओ कि कुछ रात कटे
क़ातिल-ए-शहर से बच कर मैं अभी आया हूँ
मैं अकेला हूँ चले आओ कि कुछ रात कटे
फ़र्श किरनों का बिछा देगी सहर आ के 'रईस'
दिल के ज़ख़्मों को भी चमकाओ कि कुछ रात कटे
(371) Peoples Rate This