जाने क्या बात है क्यूँ गर्मी-ए-बाज़ार नहीं
जाने क्या बात है क्यूँ गर्मी-ए-बाज़ार नहीं
अब कोई जिंस-ए-वफ़ा का भी ख़रीदार नहीं
लोग इक शख़्स को ले जाते हैं मक़्तल की तरफ़
इस पे इल्ज़ाम है उतना कि गुनहगार नहीं
ज़िंदगी ज़ख़्म सही ज़ख़्म का दरमाँ कीजे
कोई इस शहर में ज़ख़्मों का ख़रीदार नहीं
पैकर-ए-शे'र में ढल जाए किसी का चेहरा
मेरे इज़हार-ए-मोहब्बत का ये मेआ'र नहीं
तेरी इक नीची नज़र उम्र का सरमाया है
साक़िया मैं तिरे साग़र का तलबगार नहीं
यूँ भी हम दर्द को पहलू में छुपा लेते हैं
मुजरिम-ए-शौक़ हैं रुस्वा सर-ए-बाज़ार नहीं
अपनी मर्ज़ी से यहाँ मुझ को बहा ले जाए
तेज़ इतनी तो अभी वक़्त की रफ़्तार नहीं
आप के दर्द से रिश्ता है मिरे दिल का 'रईस'
कौन कहता है कि मैं आप का ग़म-ख़्वार नहीं
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