सज़ा के झेलने वाले ये सोचना है गुनाह
कोई क़ुसूर भी तुझ से कभी हुआ कि नहीं
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ठहर के पाँव के काटे निकालने वाले
वो सामने सर-ए-मंज़िल चराग़ जलते हैं
इस दर की सी राहत भी दो आलम में कहीं है
नहीं कि अपनी तबाही का 'राज़' को ग़म है
ठहर के तलवों से काँटे निकालने वाले
अगर गुनाह के क़िस्से भी कह दिए तुझ से