इस दर की सी राहत भी दो आलम में कहीं है
इस दर की सी राहत भी दो आलम में कहीं है
जीना भी यहीं है मुझे मरना भी यहीं है
अब वाक़िफ़-ए-मफ़्हूम-ए-वफ़ा क़ल्ब-ए-हज़ीं है
अब आप की बेदाद भी बेदाद नहीं है
तुम और मिरी ख़ाना-ख़राबी पे तबस्सुम
उम्मीद से बढ़ कर अभी क़द्र-ए-दिल-ओ-दीं है
या तेरे सिवा हुस्न ही दुनिया में नहीं था
या देख रहा हूँ कि जो मंज़र है हसीं है
ये ज़ीस्त है या मौत समझ में नहीं आता
अब दर्द है और दर्द की तकलीफ़ नहीं है
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