इक रात बख़्त सूँ मैं रिंदाँ का सात पाया
इक रात बख़्त सूँ मैं रिंदाँ का सात पाया
इरफ़ाँ के मुल्क-ए-दीं पर हक़ सूँ बरात पाया
मन-अरफ़ा-नफ़सहु का अंजन लगा को देखा
हर चीज़ ज़ात-ए-हक़ बिन मैं बे-सबात पाया
यू नफ़्स-ए-दूँ हवा सूँ पकड़े लिया था मेरी
मुर्शिद की कफ़श उठाईं उस सूँ नजात पाया
यू क़ौल ओ फ़े'अल मेरा मुझ इख़्तियार सूँ नीं
हत पंज मात की मैं आपस की ज़ात पाया
तस्लीम कर अपस कूँ उस की रज़ा के ऊपर
महबूब का अपस पर नित इल्तिफ़ात पाया
जा बुत-कदे में देखा चश्म-ए-यगाँगी सूँ
हक़ बिन नहीं दिस्या गर उज़्ज़ा-ओ-लात पाया
इस्म-ओ-सिफ़त का जल्वा इस्म-ओ-सिफ़त में देखा
हर ज़ात कूँ ख़ुदा की मैं ऐन-ए-ज़ात पाया
क़तरा है ऐन-ए-दरिया दरिया है ऐन-ए-क़तरा
भी दोनों ग़ैर ही हैं नादिर यू बात पाया
हर शय है ऐन-ए-हर-शय भी शय है ग़ैर-ए-हर-शय
मुर्शिद के लुत्फ़ सूँ मैं क्या ख़ूब बात पाया
महताब-ए-इलम सुलगा गुल-रेज़ मअरिफ़त के
कर जहल को हवाई ख़ुश शब्बरात पाया
रूँ रूँ ज़बाँ करूँ तो उस की सना न सर सी
'क़ुर्बी' करम सूँ हक़ की क्या ख़ुश-निकात पाया
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