सकी मुख सफ़्हे पर तेरे लिख्या राक़िम मलक मिसरा
सकी मुख सफ़्हे पर तेरे लिख्या राक़िम मलक मिसरा
ख़फ़ी ख़त सूँ लिख्या नाज़ुक तिरे दोनों पलक मिसरा
क़लम ले कर जली लिख्या जो कुई भी ना सकें लिखने
लिख्या है वो कधिन मुख तेरे सफ़्हे पर अलक मिसरा
सू लिख लिख कर परेशाँ हो क़लम लट आप कहते हैं
मुक़ाबिल ऊस के होसे न लिखेंगे गर दो लक मिसरा
बज़ाँ कर देख मुख धुन का दवानी हो बहाने सूँ
किए सब ख़ुश-नवेसाँ सट क़लम लिख नईं न सक मिसरा
क़लम मुखड़े सूँ नासिक ले लीखे है लब को सुर्ख़ी सूँ
जो कुई भी देख कहते हैं लिख्या है क्या ख़ुबक मिसरा
सकी के कुच पे नाज़ुक ख़त न बूझे कोई किने लिख्या
'क़ुतुब' कूँ पूछते तू यूँ के लिख्या है मेरा नक मिसरा
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