मोहमल है न जानें तो, समझें तो वज़ाहत है
है ज़ीस्त फ़क़त धोका और मौत हक़ीक़त है
Jaun Eliya
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Parveen Shakir
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वो जो उम्र भर में कही गई सर-ए-शाम-ए-हिज्र लिखी गई
लबों को खोल तो कैसा भी हो जवाब तो दे
अपनी यही पहचान, यही अपना पता है
आइना हूँ कि मैं पत्थर हूँ ये कब पूछे है
हो पाए किसी के हम भी कहाँ यूँ कोई हमारा भी न हुआ
क्या अहद-ए-नौ में अपनी पहचान देखता हूँ
तज़्किरे फ़हम ओ ख़िरद के तो यहाँ होते हैं
आए थे क्यूँ सहरा में जुगनू बन कर
कोहसार तो कहीं पे समुंदर भी आएँगे
जब अपने वा'दों से उन को मक्र ही जाना था
उम्र भर खुल नहीं पाते हैं रुमूज़-ओ-असरार