अब इस तरह भी रिवायत से इंहिराफ़ न कर
बदल अगरचे तू अच्छा न दे, ख़राब तो दे
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हो पाए किसी के हम भी कहाँ यूँ कोई हमारा भी न हुआ
वो जो उम्र भर में कही गई सर-ए-शाम-ए-हिज्र लिखी गई
तज़्किरे फ़हम ओ ख़िरद के तो यहाँ होते हैं
ये ज़मान-ओ-मकाँ का सितम भी नया
अपनी यही पहचान, यही अपना पता है
मोहमल है न जानें तो, समझें तो वज़ाहत है
लबों को खोल तो कैसा भी हो जवाब तो दे
हर मौज-ए-हवादिस रखती है सीने में भँवर कुछ पिन्हाँ भी
डाल दी पैरों में उस शख़्स के ज़ंजीर यहाँ
कोहसार तो कहीं पे समुंदर भी आएँगे
तेरे बिन हयात की सोच भी गुनाह थी