हर मौज-ए-हवादिस रखती है सीने में भँवर कुछ पिन्हाँ भी
हर मौज-ए-हवादिस रखती है सीने में भँवर कुछ पिन्हाँ भी
रहते हैं मुक़ाबिल ही अक्सर इश्काल भी दिल में ईमाँ भी
शहरों की चमक ने आँखों को दिखलाए वो मंज़र जिन के लिए
क़द्रों का तग़य्युर क्या कहिए छोड़ आए ज़मीनें दहक़ाँ भी
हर सम्त लरज़ती चीख़ें हैं जलते हुए ग़ुंचों, कलियों की
पूछे है ज़मीन-ए-गुल हम से क्या कुछ है इलाज-ए-वीराँ भी
तख़्लीक़-ए-अजाइब लाख हुई फ़िल-अस्र ये उक़्दा अपनी जगह
इक हर्फ़-ए-वफ़ा की क़ामत पर ये अहद रहा है हैराँ भी
थी सोच ये मनफ़ी, लगने लगी मुसबत भी जो नारा बन के यहाँ
आज़ादी-ए-निस्वाँ कह कह कर औरत को किया है उर्यां भी
इस शहर-ए-कसाफ़त में आ कर ओझल हुए आँखों से मंज़र
वो गाँव का सब्ज़ा वो बहर-ओ-बर वो धूप वो बर्क़-ओ-बाराँ भी
इक इश्क़ में लिख लिख कर काटा हर लफ़्ज़ किताब-ए-हस्ती का
कर डाला उसी ने ज़ेर-ओ-ज़बर जो काम लगे था आसाँ भी
गर्दिश में ज़माना है हर पल उम्मीद पे दुनिया है क़ाएम
कल जिन से थे सहमे सहमे से हम, हैं आज वो लर्ज़ां लर्ज़ां भी
असरार-ए-ज़माना बन बन कर आते हैं यहाँ दिन रात मगर
फ़ितरत के मसाइब से अब तक हारा है कहाँ ये इंसाँ भी
हो पाए किसी के हम भी कहाँ यूँ कोई हमारा भी न हुआ
कब ठहरी किसी इक पर भी नज़र क्या चीज़ है शहर-ए-ख़ूबाँ भी
इंसाँ का समझना है बाक़ी, अंजाम को पहुँचे है दुनिया
बन जाए फ़रिश्ता जब चाहे हो जाए ये अक्सर हैवाँ भी
डरता है दिल-ए-कम-फ़हम यहाँ क्या जानिए क्या हो बस्ती का
रहते हैं अब अहल-ए-उल्फ़त के हम-राह ये नफ़रत-साज़ाँ भी
आजिज़ है ये इंसाँ अपनी ही सुनाई पे जब जब ग़ौर करे
है फ़र्क़ नुमायाँ हर इक में फिर भी है सभी कुछ यकसाँ भी
इसबात-ए-तफ़क्कुर रखता है हम तुम में तवाज़ुन भी लेकिन
रिश्तों पर पड़ी जब बर्फ़-अना काम आए न अहद-ओ-पैमाँ भी
मेआर-ए-अदब भी ठहरे सदा हो अहल-ए-जहाँ के लब पर भी
तख़्लीक़ ग़ज़ल कर ऐसी इक हो शाद कि जिस पर यज़्दाँ भी
मोहतात बनाया होगा उन्हें हालात ने अपने घर के ही
अब अपने ही घर में रहते हैं 'ख़ालिद' जो ब-शक्ल-ए-मेहमाँ भी
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