वो बंद मुट्ठियों को मिरी खोलने न दे
वो बंद मुट्ठियों को मिरी खोलने न दे
ग़ैरत मगर ज़बाँ से मुझे बोलने न दे
चारों तरफ़ से मुझ को बुलाता है आसमाँ
लेकिन कशिश ज़मीन की पर तोलने न दे
वो मुस्कुरा रहा है कँवल बन के फ़िक्र में
कीचड़ में अपना जिस्म मुझे घोलने न दे
दीवार-ए-शब को तोड़ के दर आई रौशनी
ख़्वाब-ए-गिराँ कि आँख इधर खोलने न दे
रोके है तल्ख़ बात से मीठी ज़बाँ मिरी
इक बूँद ज़हर सिद्क़ मुझे घोलने न दे
हीरों में तौलता है वही अपने आप को
जो मुझ को बहर-ए-ग़म से गुहर रोलने न दे
कहता है मिस्ल-ए-सैक़ल-ए-आईना शे'र को
अपने में कोई रंग 'रज़ा' घोलने न दे
(413) Peoples Rate This