चाँद चमकने लगता है
ऊँचे ऊँचे पेड़ खड़े हैं चीलों के
कोहसारों की ढलानों पर जो नीचे
दौड़ी जाती हैं
चाँद से चेहरे वाली नदी के मिलने को
चारों जानिब छाई चुप के पहलू से
दर्द की सूरत उठने वाली तेज़ हवा
गिर्द-ओ-पेश से बे-परवा
अपनी रौ एक ही लय मैं गाती है
उस की ये बेगाना रवी दीवाना ही बनाती है
इक पत्थर पर बैठा पहरों एक ही सम्त में तकता हूँ
नीचे दौड़ी जाती ढलानें
जैसे पलट कर आती हैं
चीलों के पेड़ों के फुंगों से भी ऊँचा जाती हैं
पत्तों के अब पैहम रक़्स की ताल बदलती है
मैं ही शायद
दर्द के साज़ पे अपना राग अलापे जाता हूँ
जाने कब तक...
दूर फ़लक पर चाँद चमकने लगता है
(420) Peoples Rate This