शहर में रंग है न ख़ुश्बू है
शहर में रंग है न ख़ुश्बू है
फिर भी चर्चा उसी का हर-सू है
बह रहा है मुहीब सन्नाटा
पा-ब-गिल सब्ज़ा-ए-लब-ए-जू है
घुप अँधेरे का जल रहा है चराग़
रौशनी का अजीब जादू है
बे-दिली है नसीब-ए-दाम-ए-ख़्याल
आरज़ू इक रमीदा आहू है
सीना-ए-संग पर ठिठुरता हुआ
शाख़-ए-गुल का गुदाज़ पहलू है
शिद्दत-ए-कर्ब से निढाल नहीं
आँख में जम गया जो आँसू है
एक ज़र्रा नहीं जो मिल जाए
और बपा महशर-ए-तगापू है
दर्द ने बढ़ के आश्कार किया
मौत पर ज़िंदगी का क़ाबू है
मुझ को देखें 'नज़र' जो कहते हैं
आदमी, आदमी का दारू है
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