धुँदला दिया ज़ीस्त का तसव्वुर
धुँदला दिया ज़ीस्त का तसव्वुर
अपनी आँखों ही की नमी ने
हैवान-सिफ़त हुआ है आख़िर
दिखलाया कमाल आदमी ने
की दोस्ती भी तो दुश्मनी से
जाना न उन्हें मगर हमीं ने
गाढ़े की तो खाल खींच डाली
रात उन के जमाल-ए-रेशमीं ने
शो'लों से बुझाई प्यास जी की
यारों के मिज़ाज-ए-बलग़मीं ने
ये ज़ोहरा ये मुश्तरी ये महताब
क्या क्या न मिलीं नई ज़मीनें
मिट कर भी ग़ुबार-ए-कहकशाँ हैं
चमका दिया किस की हमदमी ने
जो गुल सर-ए-अर्श भी न खिलते
वो गुल भी खिला दिए ज़मीं ने
शायद कि तलब किया 'नज़र' को
का'बे में रसूल-ए-हाशमी ने
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