चनारें वादियों में मुश्तइ'ल हैं
चनारें वादियों में मुश्तइ'ल हैं
दरेग़ा सर्व अभी तक पा-ब-गिल हैं
उठे हैं लाला-ए-ख़ूनीं-कफ़न फिर
यही शो'ले जहान-ए-मुस्तक़िल हैं
अगर दो-गाम पर मंज़िल है फिर क्यूँ
चटानें ज़िंदगी की मुन्फ़इल हैं
गुलों पर बे-दिली का रंग क्यूँ है
अनादिल सहन-ए-गुलशन में ख़जिल हैं
रफ़ू हो जाएँगे चाक-ए-बहाराँ
ख़िज़ाँ के घाव देखो मुंदमिल हैं
खनकते ही रहे शीशे तो किस काम
लबों तक जाम जा पहुँचें तो दिल हैं
गए मंज़िल-ब-मंज़िल दार तक हम
मराहिल इश्क़ के कब जाँ-गुसिल हैं
मिले हैं बा'द मुद्दत के तो जाना
बहुत अपने किए पर मुन्फ़इल हैं
ठिकाना क्या है ऐसे दोस्तों का
मुक़ाबिल हैं न मेरे मुत्तसिल हैं
(414) Peoples Rate This